Wednesday, October 6, 2010

कुछ पल - मेरे लिए भी....

अकेला बैठा मैं ,
रौशनी से क्यूँ भागता हूँ
अँधेरे की छाओं में
-अपने आप से बातें करने को!


क्या ये ज़िन्दगी एक बोझ बन गयी है
या बोझ ढोना ही मेरी ज़िन्दगी है?


कभी रुक जाऊं, सोचता हूँ, बस खुद क लिए......
वक़्त से कहता रहता हूँ
कुछ पल, बस कुछ देर के लिए


पर कोई सुनता क्यों नहीं?
और शायद यही वजह है कि मैं...
रौशनी से दूर, अँधेरे कि ओर भागता हूँ!
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तेरी आखों में तलाशता रहता हूँ ख़ुशी
नींद तेरी गोद का गुलाम सी बन गयी है!

मैं डरता नहीं हार से, न मौत से, न दुःख से

बस जिंदा रखना चाहता हूँ
-अपने मन को, अपनी रूह को,
उस सोच को जो मुझे जीने का मक्सद देती है


चीखता रहता है मन, जोर जोर से चिल्लाता है
पर कभी कोई सुन ही नहीं पाता!


मेरे आस पास अँधेरा ही ठीक था
रौशनी मेरे सपनों का रंग फीका कर देती है!
और शायद यही वजह है की मैं.....
रौशनी से दूर, अँधेरे की ओर भागता हूँ!
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सुबह की ये किरने
टूटे हुए सपने याद दिलाती है,
और रोशन चेहरों को देख कर
मन सहम सा जाता है?

भागते भागते थक क्यों नहीं जाती ये दुनिया!
अपने काले दामन पे कालिक क्यूँ मले जा रही हैं?


मैं जो भी करना चाहूँ वो कर क्यों नहीं सकता
कभी बस सो जाना चाहूँ तो सो क्यूँ नहीं सकता
क्यों सिखाते रहते हैं लोग
चलना, जीना और मरना?


जीत जाने की दौड़ में
ऐसे लगे हुए हैं सब कि
रास्ते की ख़ुशी को तो
अब कोई समझ ही नहीं पाता!


टिमटिमाते तारों के बीच ढून्ढ लेता हूँ सुकूं
और शायद यही वजह है की मैं.....
रौशनी से दूर, अँधेरे की ओर भागता हूँ!
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-नितिन विषेन